जन्म कुण्डली देखने के नियम - 1

जन्म कुण्डली देखने के नियम - 1

 किसी भी जन्म कुण्डली का फल ज्ञात करते समय निम्नलिखित निर्देशों एवं जानकारियों को ध्यान में रखें।

  1. कुण्डली के भावों (घरों) में ‘लग्न’ ऊपर वाला होता है।
  2. भावों की गणना बायीं ओर से दायीं ओर की जाती है।
  3. कुण्डली के भावों में स्थित अंक राशियों के क्रमांक के द्योतक होते हैं, जिनकी गणना ‘मेष’ से ‘मीन’ की ओर क्रम से की जाती है।
  4. गह जिस भाव में स्थित होते हैं, वहां राशि का अंक भी होता है। इसका अर्थ यह होता है कि वह ग्रह उस राशि पर था (जातक के जन्म के समय)।
  5. कुण्डली में ग्रहों के अंशादि लिखे होते हैं। इससे उसकी उच्च एवं नीच स्थिति को जाना जा सकता है।
  6. दृष्टि, स्वक्षेत्री, केन्द्रीय, त्रिकोणस्थ शत्रु क्षेत्रस्थ, शत्रु-मित्र ग्रहों का साथ या शत्रु-मित्र घरों के भावों में स्थान आदि का निर्धारण पूर्ववर्णित सिद्धान्तों एवं क्रिया द्वारा कर लेना चाहिए।
  7. उच्च राशिवाले, स्वक्षेत्री, मित्रक्षेत्री ग्रह जिस भाव में हों या जिस भाव पर दृष्टि डालें, उसके प्रभाव में वृद्धि होती है। इसी प्रकार उच्च क्षेत्र या स्वक्षेत्र पर दृष्टि डालने वाले ग्रह जिस भाव में हों, उसके प्रभाव की वृद्धि होती है।
  8. केंद्र स्थित ग्रह विशेष शक्तिशाली होते हैं। ये पूर्ण प्रभाव डालते हैं।
  9. त्रिकोण के भावों में स्थित ग्रह धन एवं स्वास्थ्य की वृद्धि करते हैं। इसकी गणना ग्रहों की प्रवृत्ति, भाव की स्थिति एवं राशि-ग्रहों के संतुलन के साथ-साथ ग्रहों की उच्च-नीच स्थिति के अनुसार होती है। इसी प्रकार दूसरे और ग्यारहवें भावों के सभी ग्रह जातक के धन की अपने प्रभावानुसार वृद्धि करते हैं।
  10. तीसरे ग्रह में स्थित ग्रह अपनी स्थिति के अनुसार जातक के पराक्रम की वृद्धि करते हैं।
  11.  पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे, पांचवें, नौवें, दसवें तथा ग्यारहवें भाव में स्थित सभी ग्रह आमतौर पर शुभ फल देते हैं। पाप ग्रहों का प्रभाव कम हो जाता है, पर अपवाद भी स्थिति के अनुसार होता है।
  12. छठे, आठवें एवं बारहवें भाव में स्थित ग्रह अशुभ फल देते हैं।
  13. तीसरे, छठे एवं ग्यारहवें भाव में शनि एवं केतु की स्थिति शुभ होती है।
  14. किसी भाव का कारक ग्रह यदि उस भाव में अकेला हो, तो भाव के फल को बिगाड़ देता है।
  15. यदि किसी भाव का स्वामी ग्रह उच्च राशि में, मूल त्रिकोण में, स्वक्षेत्र में या मित्र के क्षेत्र में हो, तो उस भाव का फल शुभ देता है।
  16. जिस भाव में शुभ ग्रह हो, उसका फल शुभ एवं पाप ग्रह है, तो उसका फल अशुभ होता है।
  17. जिस भाव पर शुभ ग्रह की दृष्टि हो या उसके स्वामी ग्रह पर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि हो, उसका भी फल शुभ होता है।
  18. इसके ठीक विपरीत किसी भाव में पाप ग्रह हो, या उस भाव पर पाप ग्रह की दृष्टि हो या उस भाव का स्वामी ग्रह पाप ग्रह द्वारा दृष्ट हो, तो उस भाव का फल अशुभ होता है।
  19. किसी भाव का स्वामी ग्रह पाप ग्रह हो और वह तीसरे भाव में हो, तो उस भाव का फल शुभ होता है।
  20. किसी भाव का स्वामी शुभ ग्रह हो और उस भाव से तीसरे भाव में हो तो मध्यम फल देता है। यदि यहां पाप ग्रह हो तो उसका भी प्रभाव कम होता है।
  21. किसी भाव में उसका स्वामी ग्रह बैठा हो या बुध गुरु या शुक्र की दृष्टि उस भाव पर पड़ रही हो या ये ग्रह उस भाव में बैठे हों, तो वह शुभ फल देता है।
  22. किसी भाव पर यदि केवल उसके स्वामी ग्रह की दृष्टि पड़ रही हो और उसमें बुध, गुरु या शुक्र बैठे हों, तो शुभ फल होता है।
  23. आठवें भाव में स्थित राशि का स्वामी ग्रह जिस भाव में हो, उस भाव को बिगाड़ देता है।
  24. जिस भाव में राहु या केतु हों, उस भाव के फल को वे बिगाड़ देते हैं।
  25. चन्द्रमा, बुध, शुक्र एवं गुरु को क्रमशः एक-दूसरे से शुभ माना जाता है। ये अपनी राशियों में हों, तो शुभ फल देते हैं, पर पाप ग्रह की राशियों में बैठे हों, तो इनका प्रभाव आधा हो जाता है।
  26.  केतु को भी शुभ ग्रह ही माना जाता है, पर इसकी फल-गणना में पाप ग्रह की भांति विचार किया जाता है।
  27. सूर्य, मंगल, शनि एवं राहु पाप ग्रह हैं और इन्हें एक-दूसरे से अधिक पापी माना जाता है। ये अपनी राशि में अच्छा (शुभ) फल देते हैं। यदि ये मित्र ग्रह की राशि में, उच्च राशि में या किसी शुभ ग्रह की राशि में हों, तो इनका अशुभ प्रभाव कम हो जाता है।
  28. राहु एवं केतु की स्थिति विपरीत है। जिस जातक का राहु अशुभ फल देता है। उसका केतु शुभ फल देता है और केतु अशुभ फल देता है, तो राहु शुभ।
  29. बृहस्पति दूसरे एवं सातवें भाव में अकेला हो, तो स्त्री पुत्र एवं धन के विषय में अनष्टिकारक होती है। मतान्तर से पंचम में भी।

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